भविष्य की आहट: भय और लालच की जुगलबंदी का कसता शिकंजा

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डाॅ. रवीन्द्र अरजरिया
समूचे संसार में शासक और शासित के मध्य जंग छिडी है। चालाक लोगों ने स्वयं को शासक बनाकर शारीरिक सुख, मानसिक संतोष और वैभव के भण्डार जुटाने हेतु मनगढन्त कथानकों का सहारा लिया। ऐसी कहानियों को कभी राजनैतिक पटल पर धर्म, जाति और सम्प्रदाय को आधार बनाकर फैलाया गया तो कभी आस्था के तल पर मान्यताओं, ग्रन्थों और सिद्धान्तों की दुहाई दी गई। जीवन में आनन्द और जीवनोपरान्त परमानन्द पाने के सब्जबाग दिखाकर मृगमारीचिका के शीर्ष पर स्थापित लक्ष्य के भेदन का तिलिस्म गढ लिया गया। सामाजिक परिपेक्ष में भय दिखाकर संगठनात्मक ढांचा तैयार किया गया। अनजाने खतरों के लिए तानाबाना बुनने की आवश्यकता पर बल दिया गया।
स्वार्थ की आधारशिला पर अन्तहीन ऊंचाइयां छूने के प्रयास किया जाने लगे। सत्य के मार्ग पर चलकर परमसत्य को प्राप्त करने वाली आत्माओं द्वारा निर्धारित किये गये नियमों को अस्तित्वहीन करने के निरंतर कोशिशें होती रहीं जिनका वर्तमान प्रवाह द्रुतगति से बढता ही जा रहा है। धार्मिक आयोजनों में कट्टरता के पाठ पढाने की होड लगी है जिन्हें राजनैतिक गलियारों से तूफानी हवा दी जा रही है। चुनावी मंचों पर ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ जैसे जुमले गूंजते हैं। तो बंद कमरों में ‘गजव-ए-दुनिया’ के षडयंत्र रचे जाते हैं। निजिता से जुडे श्रद्धा के पुष्पों को आराध्य के स्थान पर नेताओं के कदमों में बिछाने वालों की संख्या बढती जा रही है। धार्मिक ग्रन्थों के कल्याणकारी अनुशासनों को विकृत व्याख्याओं के द्वारा विध्वंसात्मक बनाया जा रहा ताकि विषवृक्ष की जडों को ज्यादा मजबूत किया जा सके। ऐसा करने वाले अपने स्वजनों, परिजनों तथा निकटजनों के छोडकर समूचे संसार में कट्टरता का उन्माद फैला रहे हैं।
स्वयं को सुरक्षित किले में पहुंचाकर अपने अनुयायियों को कथित धार्मिक युद्ध में झौंकने का प्रचलन तेज होता जा रहा है। धार्मिक आयोजनों के नाम पर राजनेताओं द्वारा पर्दे के पीछे से स्वयं को स्थापित करने के मंसूबे पूरे किये जा रहे हैं। इन आयोजनों के लिए अर्थ संचय हेतु अन्यायपूर्ण ढंग से धन कमाने वालों की फेहरिश्त तैयार की जाती हैं, उन्हें ज्यादा लाभ के अवसर प्रदान करने का आश्वासन दिया जाता है और फिर सामने आता है भ्रष्टाचार से कमाये गये धन का कथित धार्मिक उपयोग। वर्तमान में धनलोलुपों को मुनाफा, धर्मावलम्बियों को जन्नत या स्वर्ग, अहंकारियों को सम्मान, जिज्ञासुओं को समाधान जैसे लालच देकर चन्द चालाक लोग समूचे संसार को ही अंधे कुंये में ढकेलने में लगे हैं।
इनके द्वारा फैलाये जाने वाला मनोवैज्ञानिक जाल अब नये-नये प्रयोगों से ज्यादा मजबूत होता जा रहा है। निरीह प्राणी अतिआधुनिकता की कथित चमक के सामने स्वयं को अज्ञानी मान बैठा है। ज्ञान और अज्ञान की गढी गई परिभाषाओं को थोपकर सामाजिक संरचना को बिगाडने वाले नवीनता के नाम पर कुटिल चालें चल रहे हैं। नर्क की कथित यातनायें, आतिताइयों और काफिरों की हरकतों के हश्र, जेहाद की जरूरत, खुदा या ईश्वर के नाराज होने से कष्टों का प्रकोप, सत्ता की प्रताडना, सामाजिक नाकेबंदी जैसे अनगिनत कारकों को पैदा करके आम आवाम के शोषण वाले नूतन अध्याय लिखे जा रहे हैं। परा-विज्ञान के शाश्वत प्रयोगों के कठोर अनुशासनों को हाशिये पर फैंककर व्यवहारिक सुविधाओं को ध्यान में रखा जा रहा है।
कर्मकाण्ड के निर्धारित प्रतिबंधों के अस्तित्वहीन करके औपचारिकताओं का निर्वहन कराने वाले धर्म के ठेकेदारों ने अधर्म की फसलें बोना शुरू कर दीं हैं। लालच के दलदल में अकण्ठ डूबे लोग अब सुखद भविष्य के काल्पनिक महलों में विलासता भरे जीवन का सब्जबाग दिखाकर स्वयं का वर्तमान संवारे में लगे हैं। वे अपनी कटिल बातों को कभी संस्कृत तो कभी अरबी, कभी अंग्रेजी तो कभी चाइनीज भाषा में बोलकर अपनी विद्वता प्रमाणित करने में लग जाते हैं। अनजाने शब्दों, उनकी मनमानी विवेचनाओं और कथित परिणामों को समझे बिना ही आम आवाम स्वीकार कर लेता है। इस तरह के प्रयासों में लगे स्वार्थी लोगों की भीड अब प्राचीनकाल में किये गये परा-विज्ञान के शोधों, उनकी विधियों तथा परिणामों की स्वयं ही हत्या कर रहे हैं।
वास्तविकता तो यह है कि आदि ग्रन्थों के सिद्धान्तों को सरलता से समझाने हेतु रोचक कथानकों, संदर्भित घटनाओं और प्रवाहयुक्त शब्दों को गढा गया था। इन सूत्रों को हल करने यानी आदिकालीन ग्रन्थों को डी-कोड करने हेतु किसी सत्य साधक, हकीकतन सूफी या रियल मैसेंजर आफ गाड की आवश्यकता है। यह लोग शरीर में रहते हुए भी सांसारिकता में लिप्त नहीं होते, आवश्यकताओं की परिधि में कैद नहीं होते और नहीं होते हैं अपेक्षाओं-उपेक्षाओं के शिकार। ऐसे लोगों को खोजना, उनको कल्याण हेतु सहयोग देने के लिए राजी करना और फिर उनके बताये मार्ग पर चलना, असम्भव नहीं कठिन अवश्य है।
ज्ञान चक्षुओं से ही ऐसे महान लोगों के दिग्दर्शन हो सकते हैं, निर्मल भावनाओं से ही उन तक पहुंचा जा सकता है और पाया जा सकता है विश्व कल्याण का पथ। मृत्यु शाश्वत है, बोये गये बीज की फसलें मिलना निर्धारित है, सोच से उपजे व्यवहार की परिणति निश्चित है, यह जानते हुए भी व्यक्ति अपने स्वःविवेक की अन्तःकरण में सम्पदा का उपयोग ने करके सत्य की थोपी गई परिभाषाओं पर अंधा विश्वास करता है और फंस जाता है चालक लोगों द्वारा बिछाये गये जाल में। ऐसे में भय और लालच की परिधि से बाहर आये बिना स्वयं का कल्याण, समाज का भला और सत्य की पुनर्स्थापना बेहद कठिन है। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।
