पूर्व राज्यसभा सांसद सत्यव्रत चतुर्वेदी की बेटी ने फेसबुक पर लगा दी दग्विजय सिंह की क्लास...!

Nidhi & Digvijay Singh
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छतरपुर। पूर्व राज्यसभा सांसद सत्यव्रत चतुर्वेदी की बेटी और कांग्रेस नेत्री निधि चतुर्वेदी ने रविवार को एक अपने अकाउंट पर एक पोस्ट डाली है, जिसमें उन्होंने मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और दिग्गज कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह की क्लास लगा दी। निधि ने अपने फेसबुक पर जो नोट लिखा है उसका शीर्षक है- वैचारिक दोगलापन या 'घर वापसी' की छटपटाहट? कांग्रेस की जड़ों में मट्ठा डालने वाले दिग्विजय सिंह पर कब होगी कार्रवाई?
उन्होंने अपनी इस पोस्ट में आगे लिखा-
दिग्विजय सिंह के हालिया बयान ने राहुल गांधी से लेकर उन तमाम ज़मीनी कार्यकर्ताओं के मुँह पर तमाचा मार दिया है, जो आरएसएस और बीजेपी की विचारधारा के खिलाफ सड़क पर लड़ रहे हैं। एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता होने के नाते उनकी यह ज़िम्मेदारी बनती थी कि वे पार्टी के वैचारिक संघर्ष को धार देते, न कि विपक्षी खेमे का गुणगान कर अपने ही कार्यकर्ताओं का मनोबल तोड़ते। सुर्खियों में बने रहने की उनकी इस 'ऊल-जुलूल' बयानबाज़ी ने आज हर सच्चे कांग्रेसी के आत्म-सम्मान को गहरी ठेस पहुँचाई है। मध्य प्रदेश की राजनीति में ठाकुरवाद, सामंतवाद और गुटबाज़ी को खाद-पानी देकर दिग्विजय सिंह ने हमेशा कांग्रेस को मज़बूत करने के बजाय उसे भीतर से खोखला किया है।
मध्य प्रदेश की राजनीति में यदि कोई एक चेहरा पिछले बीस वर्षों से लगातार हस्तक्षेप करता रहा है, तो वह दिग्विजय सिंह हैं। संगठनात्मक फैसले हों, नेतृत्व चयन हो या राजनीतिक दिशा तय करने की बात - हर जगह उनकी भूमिका निर्णायक रही है। इसका परिणाम यह हुआ कि कई समर्पित और ज़मीनी नेता या तो हाशिए पर चले गए या राजनीति से ही बाहर हो गए। कांग्रेस को जितना नुकसान विपक्ष ने नहीं पहुँचाया, उतना दिग्विजय सिंह की अंदरूनी खींचतान और व्यक्ति-केंद्रित राजनीति ने किया।
सवाल उठता है कि क्या दिग्विजय सिंह की यह 'संघ-स्तुति' महज़ एक संयोग है या उनके पारिवारिक डीएनए का प्रभाव?
बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि दिग्विजय सिंह का नाता उस 'हिंदूवादी' राजनीति से कितना पुराना है, जिसका वे विरोध करने का ढोंग करते हैं। The Saffron Tide सहित मध्य प्रदेश की राजनीति पर लिखी गई कई पुस्तकों और शोधपत्रों में उल्लेख मिलता है कि राघोगढ़ राजघराने की जड़ें हिंदू महासभा से जुड़ी रही हैं।
दिग्विजय सिंह के इस दोगले चेहरे को बेनकाब करते हुए एक बार आरएसएस के वरिष्ठ नेता राम माधव ने पीटीआई (PTI) के हवाले से एक बेहद गंभीर खुलासा किया था। राम माधव ने साक्ष्यों के साथ दावा किया था कि:
"दिग्विजय सिंह के पिता न केवल सावरकर की हिंदू महासभा का प्रतिनिधित्व करने वाले विधायक थे, बल्कि स्वयं दिग्विजय सिंह ने नगरपालिका के अध्यक्ष का पद हिंदू महासभा के नामांकित सदस्य के रूप में संभाला था।"
दरअसल दिग्विजय सिंह के पिता बलभद्र सिंह 1951–52 के पहले आम चुनावों में राघोगढ़ विधानसभा सीट से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़े थे। हालांकि वे निर्दलीय थे, लेकिन उन्हें अखिल भारतीय हिंदू महासभा और भारतीय जनसंघ (जो आज की भाजपा का पूर्ववर्ती संगठन है) का खुला समर्थन प्राप्त था। उस दौर में रियासतों के कई शासक इसी विचारधारा के साथ राजनीति में सक्रिय थे।
स्वयं दिग्विजय सिंह ने 'द लल्लनटॉप' (The Lallantop) इंटरव्यू में स्वीकार किया है कि आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर (गुरुजी) उनके पिता के इतने करीबी थे कि वे अक्सर राघोगढ़ किले में उनके घर पर ही रुकते थे। राजमाता विजयाराजे सिंधिया की आत्मकथा भी इस बात की पुष्टि करती है कि बलभद्र सिंह जनसंघ और हिंदू महासभा के कितने निकट थे।
इतना ही नहीं, दिग्विजय सिंह के छोटे भाई लक्ष्मण सिंह वर्ष 2003 में कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए, 2004 में भाजपा के टिकट पर लोकसभा चुनाव जीता और सांसद बने। भले ही वे बाद में कांग्रेस में लौट आए, और हाल ही में पार्टी विरोधी गतिविधियों के लिए निष्कासित हुए हैं, आज भी उनके कई बयान ऐसे होते हैं जो सीधे तौर पर भाजपा की विचारधारा से मेल खाते हैं। राघोगढ़ राजघराने से जुड़े कई अन्य रिश्तेदार और पुराने सहयोगी भी आज खुलकर भाजपा की विचारधारा के समर्थक माने जाते हैं।
यद्यपि द प्रिंट (The Print) और इंडियन एक्सप्रेस जैसे अखबारों में दिग्विजय सिंह यह दावा करते रहे हैं कि उन्होंने 1970 के दशक में 'नेहरूवादी' विचारधारा को चुना, लेकिन उनके कारनामे कुछ और ही कहानी बयां कर रहे हैं। जब कांग्रेस का साधारण कार्यकर्ता बीजेपी और संघ की मशीनरी के खिलाफ लाठियां खाता है, तब उन्हीं की पार्टी का एक शीर्ष नेता उसी विरोधी विचारधारा को "शक्तिशाली" बताकर उसे ऑक्सीजन देता है। यह कृत्य उन लाखों कार्यकर्ताओं की निष्ठा और मेहनत का अपमान है। बीते वर्षों में दिग्विजय सिंह का आचरण लगातार यह संकेत देता रहा है कि वे स्वयं को पार्टी से ऊपर समझने लगे हैं। दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं ने कांग्रेस को एक 'प्राइवेट लिमिटेड कंपनी' समझ लिया है, जहाँ वे पार्टी के हितों की बलि देकर अपनी व्यक्तिगत इमेज चमकाते हैं। सबसे अहम प्रश्न यह है कि क्या दिग्विजय सिंह की राजनीतिक सोच वास्तव में कांग्रेस की वैचारिक धारा से मेल खाती है?
अब समय आ गया है कि कांग्रेस हाईकमान अपनी 'मौन' संस्कृति को त्यागे। दिग्विजय सिंह का यह व्यवहार घोर अनुशासनहीनता की श्रेणी में आता है। पार्टी की साख और कार्यकर्ताओं के गिरे हुए मनोबल को बचाने के लिए यह अनिवार्य है कि कांग्रेस नेतृत्व तुरंत दिग्विजय सिंह को पार्टी से निष्कासित करे और उनके विरुद्ध कड़ी अनुशासनात्मक कार्रवाई सुनिश्चित करे।
कांग्रेस को अब 'सामंती' सलाहकारों की नहीं, बल्कि उन योद्धाओं की ज़रूरत है जिनके मन में विचारधारा को लेकर कोई संशय न हो।
